भारतीय जनता पार्टी के कद्दावर नेता कल्याण सिंह ने 21 अगस्त को आख़िरी सांस ली.
89 साल के कल्याण सिंह करीब डेढ़ महीने से लखनऊ के संजय गांधी पीजीआई (पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज) में भर्ती थे.
ठीक तीन दशक पहले, कल्याण सिंह बीजेपी की हिंदुत्व की राजनीति के सबसे बड़े पोस्टर ब्वॉय थे. एक समय ऐसा भी रहा कि वे बीजेपी के बाक़ी नेताओं से बीस दिखाई देने लगे थे क्योंकि उन्हें ऐसे नेता के तौर पर देखा जाने लगा था जिसके चलते अयोध्या में 16वीं शताब्दी में बनी बाबरी मस्जिद गिराई गयी थी.
बाबरी मस्जिद को छह दिसंबर, 1992 को आ’क्रा’मक हिंदू का’रसेवकों ने गिराया था, उस वक्त उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ही थे.
हालांकि उसी शाम केंद्र सरकार ने उनकी सरकार को बर्ख़ास्त कर दिया था. उन्हें एक दिन की सांकेतिक जेल की सज़ा भी मिली थी क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के सामने बाबरी मस्जिद को सुरक्षित रखे जाने के अपने लिखित प्रतिबद्धता को वे पूरा नहीं कर पाए थे.
बाबरी मस्जिद के बारे में माना जाता था कि इसे मुग़ल बादशाह बा’बर के सेनापति मीर बाक़ी ने यहां मौजूद राम मंदिर को गिर’वाकर बनवाया था. इस मस्जिद की जगह बड़ी संख्या में हिंदू राम मंदिर की स्था’पना चाहते थे और 90 के दशक में इसी राम मंदिर आंदो’लन से बीजेपी को उभार मिला था.
जब ली बाबरी गि’राने की ज़िम्मेदारी
बाबरी मस्जि’द गिराए जाने की ज़िम्मेदारी कल्याण सिंह ने ली थी. उन्होंने कहा था, “उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में मैंने पुलिस को 1992 के राम मंदिर आंदोलन को लेकर अयोध्या में जमा हुए राम भक्तों पर गो’ली नहीं चलाने का आदेश दिया था. इसके चलते ही बाबरी मस्जिद गिराई गई. मैं इसकी पूरी ज़िम्मेदारी लेता हूं.”
भारतीय राजनीति को पूरी तरह बदलने वाली घटना यानी बाबरी मस्जिद गिराए जाने के पीछे क्या वास्तव में कल्याण सिंह ही थे, इस सवाल का जवाब अभी भी पहेली ही है. क्योंकि मुख्यमंत्री होने के बाद भी संभवत: वह मस्जिद गिराए जाने की योजना से अनभिज्ञ थे.
ऐसे में सबसे बड़ा रहस्य यही है कि क्या मस्जिद गिराने का षड्यंत्र जिन लोगों ने रचा था उन्होंने योजना पर अमल करने से पहले कल्याण सिंह को भी विश्वास में नहीं लिया था?
दरअसल इस मामले में उनकी अज्ञानता, उस स’दमे और निराशा से ज़ाहिर हो रही थी जो उनके चेहरे पर तब मौजूद थी जब कई पत्रकार उनसे छह दिसंबर, 1992 की शाम में मुख्यमंत्री आवास पर मिलने पहुंचे.
बाबरी विध्वं’स के बाद जब चिंतित और परेशान थे
सारे पत्रकार पूरे देश को हिलाने वाली घटना पर उनकी प्रतिक्रिया चाहते थे. कल्याण सिंह के चेहरे पर जीत हासिल करने वाले शख़्स जैसा भाव बिलकुल नहीं था जैसा पहले से निर्धारित मिशन को पूरा करने के बाद लोगों में होता है.
वे स्पष्ट तौर पर चिंतित और परेशान नज़र आ रहे थे. निश्चित तौर पर उच्च जातियों के वर्चस्व वाली भारतीय जनता पार्टी में एक ओबीसी वर्ग के नेता के तौर पर उन्होंने जो कुर्सी कड़ी मेहनत और संघर्ष के बाद हासिल की थी, उसके छिन जाने के विचार से वे सहज नहीं थे.
दरअसल, इससे पहले बीजेपी ने कभी किसी भी ओबीसी नेता को इतनी अहम पॉजिशन और अहमियत भी नहीं दी थी.
नहीं था कोई गॉडफ़ादर
कल्याण सिंह ने राजनीति में काफ़ी संघर्षों के बाद अपनी जगह बनायी थी. राजनीति में ना तो उनका कोई गॉडफ़ादर था और ना उनके पास जातिगत आधार पर मतदाताओं का बड़ा वोटबैंक था. लेकिन अपनी काबिलियत से वे हर बाधा को पार करते गए और राजनीति में क़दम जमाते गए.
1991 के विधानसभा चुनाव में 423 सीटों में 221 सीटों पर बीजेपी को अप्रत्याशित जीत दिलाने के महज़ 18 महीने बाद मुख्यमंत्री पद छोड़ने के लिए वे तैयार नहीं थे.
मुख्यमंत्रीत्व काल में उन्होंने ईमानदार और कुशल प्रशासक की प्रतिष्ठा अर्जित की थी, जिसे वे निस्संदेह और मज़बूत करना चाहते थे. तब उन्हें नो-नॉनसेंस मुख्यमंत्री के तौर पर देखा जाने लगा था.
लेकिन बाबरी मस्जिद के गि’राए जाने के बाद उनके पास मुख्यमंत्री का पद छोड़ने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा था. इसके बाद उनके लिए संघर्षों का दौर शुरू हो गया.
हालांकि 1997 से 1999 के बीच दो साल के लिए वे फिर से मुख्यमंत्री ज़रूर बने. लेकिन उनका ये कार्यकाल विवा’दों से भरा साबित हुआ.
अटल बिहारी वाजपेयी से वि’द्रोह
इस दौरान उनके सामने परिस्थितियां इतनी तेज़ गति से बदलती गईं कि उन्होंने अपने मेंटॉर और बीजेपी के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी से विद्रो’ह कर दिया. हालात ऐसे बने कि दिसंबर, 1999 में उन्हें पार्टी छोड़नी पड़ी.
लेकिन कल्याण सिंह ने हार नहीं मानी, उन्होंने राष्ट्रीय क्रांति पार्टी का गठन किया. अपने राजनीतिक दुश्म’न मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी से समझौता भी किया लेकिन उन्हें जल्द ही महसूस हो चुका था कि हता’शा में उठाया गया क़दम निरर्थक है.
2004 में वे फिर से भारतीय जनता पार्टी में लौट आए. लेकिन पार्टी के अंदर वे अपना दबदबा खो चुके थे और वे जिस क़द के नेता रहे थे, वहां तक दोबारा नहीं पहुंच सके.
पार्टी में वापसी के क़रीब दस साल बाद, मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक तरह से उनकी सुध ली और अगस्त, 2014 में उन्हें राजस्थान का राज्यपाल बनाया गया.
2019 में वे फिर से उत्तर प्रदेश लौटे लेकिन तब तक उनकी उम्र 87 साल की हो चुकी थी. हालांकि तब तक वो योगी आदित्यनाथ की सरकार में अपने पोते संदीप सिंह को मंत्री बनवा चुके थे.
यूपी की राजनीति में अंदरखाने पर नज़र रखने वालों की मानें तो संदीप अपने दादा कल्याण सिंह के सांचे में ढल रहे हैं, यह एक तरह से कल्याण सिंह के सपने का पूरा होना है.